लेखक के विषय में

महासमर (महाभारत), अभ्युदय (रामायण), हिडिम्बा, कुन्ती, न भूतो न भविष्यति तथा स्वामी विवेकानंद के जीवन पर आधारित तोड़ो, कारा तोड़ो, जैसी कालजयी कृतियों के रचयिता नरेन्द्र कोहली किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। भारतीय चिंतन व दर्शन को मूर्तरूप देने वाली इस रचना को पढ़कर पाठकों के समक्ष महाभारत काल सजीव हो उठता है ।

पुस्तक समीक्षा

बन्धन  का आरम्भ होता है, हस्तिनापुर के सम्राट शांतनु की खिन्नता से। सत्यवती के पिता दासराज द्वारा अपनी सुपुत्री की भावी संतानों के लिए राज्याधिकार मांगे जाने से उदिग्न शांतनु नगरद्वार पर उनकी प्रतीक्षारत अपने पुत्र देवव्रत से बेखबर आगे बढ़ जाते हैं। यहीं से भावी घटनाओं की पृष्ठभूमि के साथ-साथ महासमर के इस पहले खंड के केंद्र में देवव्रत की चिंतन-प्रक्रिया भी हमारे समक्ष प्रत्यक्ष होने लगती है।

अपने माता-पिता के प्रेम से वंचित, बाल्यावस्था से ही युवराज देवव्रत आश्रमों के कठोर अनुशासन में पले-बढ़े थे। पच्चीस वर्ष की अल्पायु में ही धर्म में उनकी कितनी प्रगाढ़ आस्था थी, यह उनके चिंतन से स्पष्ट हो जाता है। लेकिन केवल सामाजिक विधिविधान व रीति-रिवाजों के दृष्टिकोण से किया गया धर्म-चिंतन भी व्यक्ति, परिवार एवं समाज के लिए कितना कष्टप्रद एवं पीड़ादायी हो सकता है, इसका उल्लेख देवव्रत के जीवन-चित्रण के माध्यम से किया गया है। इसी में देवव्रत की – जो दासराज के सम्मुख की गई अपनी भीषण प्रतिज्ञाओं के कारण भीष्म की संज्ञा प्राप्त करते हैं –महानता भी है और मामूलीपन भी।

बन्धन में देवव्रत की

महासमर के इस पहले खंड में काम, लोभ, भोग, अहंकार और भय को सम्राट शांतनु, दासराज, महारानी सत्यवती, राजकुमार चित्रांगद व विचित्रवीर्य एवं काशी की तीनों राजकन्याओं (अंबा, अंबिका और अंबालिका) के जीवन-चित्रण के माध्यम से एक मूर्त रूप-सा दे दिया गया है। परन्तु यह कहना भी गलत नहीं होगा कि इस विस्तृत घटनाक्रम के मध्य में केवल भीष्म और उनकी प्रतिज्ञाएं ही हैं। यह अद्भुत ही है कि कुरुवंश के प्रत्येक सदस्य के चरित्र व चिंतन पर प्रकाश डालने के बावजूद भीष्म का व्यक्तित्व गगनमंडल में जगमगाते किसी विशाल तारे की भांति उभर कर आता है।

बन्धन में भीष्म की बाध्यता व विवशता

जन्मांध धृतराष्ट्र की धूर्तता, रुग्ण पाण्डु की महत्त्वाकांक्षाओं व दासीपुत्र महात्मा विदुर की नीति का भी सोदाहरण वर्णन है। 70 अध्यायों की इस रचना के अंतिम अध्यायों में पाण्डवों एवं धार्तराष्ट्रों के जन्म की कथा से लेकर अल्पव्यस्क पाण्डवों के हस्तिनापुर में आगमन व सत्यवती सहित अंबिका और अंबालिका का कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास के साथ प्रस्थान का उल्लेख किया गया है।

अमेया का मूल्यांकन:
4.5/5

इस उपन्यास में प्रस्तुत राजनीति, धर्म व समाज से संबंधित भीष्म के मन के भीतर चलते सतत द्वंद्व में हमें आधुनिक काल के अपने द्वंदों की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। महाभारत को यथार्थवाद की कसौटी पर तोलती 522 पृष्ठों वाली यह रचना वर्तमान में उसकी प्रासंगिकता को भी रेखांकित करती है। प्रत्येक छोटी-बड़ी घटना से लेकर प्रत्येक पात्र की चिंतन-प्रक्रिया का सविस्तार उल्लेख किए जाने के फलस्वरूप कुछ पाठकों के लिए कई स्थानों पर यह पुस्तक थोड़ी अरुचिकर अवश्य हो सकती है, परन्तु वास्तव में यह विस्तृत विवरण ही महाभारत की इस रचना व इसके अगले खंडों को इतना कालातीत बनाता है। संस्कृतनिष्ठ भाषा में होने के बावजूद कोहली जी की शैली सुबोध एवं अत्यंत सरल है। भारतीय इतिहास, आध्यात्मिकता व दर्शन में रूचि रखने वाले सुधी पाठकों को इस रचना को अवश्य पढ़ना चाहिए।

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