लेखक के बारे में
शिवाजी गोविंदराव सावंत का जन्म 31 अगस्त 1940 में कोहलापुर, महाराष्ट्र में हुआ था। उनकी गिनती मराठी भाषा के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकारों में की जाती है। उनके उपन्यास मृत्युंजय ने कई भारतीय भाषाओँ में अपूर्व कीर्ति अर्जित की है। इस उपन्यास के लिए भारतीय ज्ञानपीठ समिति ने उन्हें मूर्तिदेवी पुरस्कार से सम्मानित भी किया था।
इसके अतिरिक्त, उनका उपन्यास युगन्धर भी काफ़ी लोकप्रिय है व उसे साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
श्री सावंत द्वारा रचित उपन्यासों का अनुवाद हिन्दी, अंग्रेज़ी एवं अन्य भारतीय भाषाओँ में किया गया है।
वे महाराष्ट्र साहित्य परिषद् के उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं। अपने जीवन में उन्हें कई सारे प्रतिष्ठित पदों पर कार्यरत रहने का गौरव प्राप्त हुआ।
18 सितम्बर 2002 को वे पंचतत्व में विलीन हो गए।
सार – हिन्दी अनुवाद 1974
मृत्युंजय की कहानी सूर्यपुत्र दानवीर कर्ण के जीवन पर आधारित है।
महाभारत की महागाथा में अंगराज कर्ण प्रमुख पात्रों में से एक थे। मृत्युंजय में लेखक ने महाभारत के इसी इतिहास को अंगराज कर्ण के दृष्टिकोण से सुनाया है। कुछ घटनाओं पर प्रकाश डालने के उद्देश्य से दुर्योधन, कुंती, वैशाली व भगवान् श्री कृष्ण के व्यक्तित्वों पर भी बल दिया गया है।
उपन्यास के आरंभ में कर्ण अपनी मृत्यु के पश्चात् पाठकों को संबोधित करते देखे जाते हैं। वे संसार को यह बताना चाहते हैं कि उनका जीवन वास्तव में कैसा था। वे अपने प्रत्येक निर्णय एवं व्यवहार का एक खरा विश्लेषण करने का प्रयास करते देखे जाते हैं।
लेखक ने चंपानगरी में कर्ण के बचपन का भी विस्तृत वर्णन किया है। बल्कि कालक्रम के अनुसार लेखक ने कर्ण के जीवन की हर छोटी-बड़ी घटना का विवरण किया है। अन्य प्रमुख पात्रों के साथ कर्ण के के संबंध पर भी सविस्तार प्रकाश डाला गया है।
मृत्युंजय में हमें क्या पसंद आया
महाभारत एवं भारतीय इतिहास में कर्ण को हमेशा से एक ऐसे व्यक्तित्व के तौर पर देखा गया है, जिनका जीवन बेहद दुखद था। ऐसा माना जाता है कि भाग्य ने कभी उनपर अपनी कृपादृष्टि नहीं डाली। लेखक ने अंगराज के जीवन के इसी दुखदायी पहलू का काफ़ी सुंदर चित्रण किया है।
उन्होंने कर्ण के जीवन में आई समूची कठिनाइयों, फ़िर भले ही वे मानसिक हों, सामजिक या शारीरिक, को कर्ण के दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। इसके चलते पाठक कर्ण के दर्द और कष्ट को और भी बेहतर ढंग से समझ पाते हैं।
सावंत जी ने कर्ण का चित्रण असाधारण गुणों वाले किसी महापुरुष के तौर पर किया है। उन्होंने इस बात पर ख़ास बल दिया कि कर्ण का संपूर्ण जीवन संसार एवं समाज में अपना उचित स्थान ढूँढने में निकल गया। कर्ण के मन की इसी उथल-पुथल को लेखक ने बहुत भावुक तरीके से पेश किया है।
इन सब बातों के बावजूद, मृत्युंजय का सबसे विशेष पहलू यह है कि लेखक ने कर्ण को पूर्णतः निर्दोष नहीं दिखाया है। उसके द्वारा किए गए प्रत्येक अपराध व उसके चरित्र के एक-एक दोष की हरसंभव आलोचना भी लेखक ने काफ़ी बेबाकी से की है।
मृत्युंजय में क्या बेहतर हो सकता था
इस उपन्यास में अर्जुन और कर्ण के मध्य हुई बातचीत पर उचित बल नहीं दिया गया है। इन दो महान योद्धाओं के वार्तालाप से मृत्युंजय की पटकथा में चार चाँद लग सकते थे।
उक्तियाँ
आज विधाता एक राजकुमारी को अबला बनाना चाहता है क्या? आज परिस्थितियाँ एक माता को हत्यारिन बना देंगी क्या?
निष्कर्ष
मृत्युंजय का नाम उन गिने-चुने उपन्यासों में शुमार है, जिन्हें भाषा की सीमाओं में बांधना संभव नहीं है। मराठी हो, हिन्दी या फ़िर अंग्रेज़ी, इस भावुक उपन्यास को प्रत्येक पाठक को अवश्य पढ़कर देखना चाहिए।
…इस समीक्षा को अंत तक पढ़ने के लिए आपका आभार
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